हाँ जरूरत से ज्यादा, आप शहरों में घर घर जाकर देखें और पता करें तो मालूम होगा, हम अपने घरों को कबाड़ख़ाना बना कर रक्खे हुए हैं।
आज हर किसी औसत कमाई वाले के पास कम से कम बीस जोड़े पहनने के कपड़े हैं । अच्छे किस्म के कीमती कपड़े आज दस सालों में भी न फटते हैं न इनका रंग फीका पड़ता है । कारण पहले तो इनका व्यवहार कम होता है, दूसरा अच्छे डिटर्जेंट से धुलाई होती है । फिर इसका टिकाऊ होना लाजिमी है ।
घरेलू व्यवहार के बर्तन घरों में कम से कम तीन तीन सेट मिल जायेंगे । पहली स्टील की , दूसरी काँच की और तीसरी चायना क्ले की। कीचन में अल्युमिनियम, स्टील, डूरालिमिनियम, और नौन स्टीक वाले बर्तनों का ढेर मिलेगा ।
बच्चों के खिलौने की बात तो पूछो मत। बचपन से लेकर दस साल के अलग-अलग ढेरों खिलौने से अलमारी भरी हुई है, इन्हें यादगारी के लिये संभाल कर रक्खें हुए हैं । उसी तरह उनके कपड़े जो कभी पहने गये थे या फिर अलमारी में रक्खे रक्खे छोटे हो गये, तो उसे भी बहुत संभाल के रक्खे हुए हैं क्योंकि उसमें उनकी यादगारी छिपी हुई है । ये जनम के वक़्त पहना था, ये पहली वर्षगाँठ पर, ये दूसरी , तीसरी और फिर ये मामा ने दिया था फिर मौसी और नानी अदि आदि । गिफ्ट्स की तो बात ही न करें । उससे एक दूसरी अलमारी भरी हुई है । बेडसिट तीन तो पलंग या चारपाई है पर कम से कम हर चारपाई पलंग के लिये पाँच पाँच सेट तो रहता ही है । पुराने रंगवीहीन हुए नहीं कि नयी डिजाइन घर आ गयी ।मुश्किल तो तब होती है कि इतने सारे समान दो कमरे के मकान में रक्खें कहाँ? मोह वश न फेक पाते हैं न दान कर पाते हैं । वो कपड़े देकर बर्तन खरीदने वाला समय भी नहीं है और अगर भूले भटके कोई ऐसा आ भी गया तो कौन सा बर्तन ले ? घर में तो ऐसे ही बरतनों का ढेर पड़ा है ।यही हाल जूते चप्पल का है। हर सेट के साथ अलग-अलग जूते चप्पल, घर में पहनने के लिये अलग बाथरूम के लिये अलग । फिर रोना रोते मंहगाई का। समझ नहीं आता है कि हम कहाँ जा रहे हैं ।
भाई मैं शहर में रहने वाले उन सबके बारे में कह रहा हूँ , जो फ्लैटों और बंगलों में रहते हैं । न कि गाँव में अपनी खेती बाड़ी कर गुजर बसर कर रहें हैं और यही देखकर एक खेतिहर मजदूर अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिये दिन रात पसीना बहाते हैं कि एक दिन उसका भी बेटा ऐसी ही खुशहाल जिंदगी जी सकेगा। पढ़ने के बाद वह खेती बाड़ी छोड़ कर शहर में बस जाता है और माँ बाप तरसते तरसते गाँव में ही दम तोड़ देते हैं और हम यहाँ जरूरत से ज्यादा इकट्ठा करते जाते हैं । अपनों को भूलकर उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर ।
जयहिन्द जयभारत वन्देमातरम ।
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